Tuesday, July 25, 2017

Shikast

क्यों हार गए
जो हारे नहीं 
कभी 
अभी 
मगर है 
समय अलग 
दौर अलग 
माहौल अलग। 

कांधो पर जिनके 
सर रखे 
नीर बहाये थे पुरज़ोर 
उनके आँसू
कौन पिए 
कौन सुनाए 
ढाँढस बोल। 

वो थे आधार 
स्थायी स्तंभ 
तूफां 
आके गुज़र गए 
उनकी छाओं में 
सहमे, कुचले 
पनपे और ख़ुशहाल हुए 
अब जो टूटे 
शाख से पत्ते 
पीले, मुरझाये हुए 
कौन खबर ले 
उन शाखों की,
उन प्रश्नों के
उत्तर क्या 
उनकी बातों का 
मोल है कितना 
उनके जज़्बे की 
कीमत क्या। 

वो आज भी कहते 
हारे नही
पर फिर क्यों 
थक के चूर लगें 
मानो 
संघर्ष है बेमानी 
अब क्यों 
मकसद सब झूट लगें। 

उनसे आँख 
 न मिलती है 
बस आँख दिखा 
रह जाते हैं 
हम अन्यमनस्क से रहते हैं 
वो भी 
अब बस मुस्काते हैं। 
उनकी मुस्कान में है गहरी 
वो 
शिकस्तों वाली वेदना 
हार का एहसास 
हार की ग़मगीनियां 
अपने अनदेखे में भी 
वही 
हारे हुए की अवहेलना 
उपहास का आभास 
अपमान की  भावना। 

वह हार गए
शायद उनके 
सिद्धांतों का था
अंजाम यही 
उनकी शिकस्त का आगाज़ था 
उनके शब्दों का दम खोना 
मतलब तो अब भी हासिल थे 
सुननेवालों का काम होना 
था सब्र नहीं 
विवेक नहीं 
फिर श्रवण हुए का 
क्या मतलब 
जब हुए चेतना शुन्य सभी 
तो व्यर्थ हुए वह शब्द सभी 
वो बातें भी 
जो थीं गौर-तलब। 
वो हार गए 
तब, जबकि 
सब हाथ छोड़कर 
अलग हुए 
कुछ 
बहके दूसरे लफ्ज़ो से 
कुछ 
संघर्ष से लाचार हुए। 

कहने को 
अब भी  लड़ते हैं 
पर जान चुके हैं 
भाँती भली 
शिकस्त मिल चुकी कबकी ही 
ये तो बस अब आदत है 
न तब थी टली,
न अब है टली।