वो क्या है की यूं तो हादसे होते ही रहते हैं
चलो अब सोते हैं
ये रात भी यूंही बेपरवाह निकल जायेगी
इस बात का क्या है
सुबह तक तो टल ही जायेगी
फिर चुस्की ले चाय की, अखबार में बाकी टटोल लेंगे
लाइनों के बीच भी मतलब कई होते हैं
चलो अब सोते हैं
ये बातें खाली तलवारों के मायन सी हैं
चुभती तो हैं बहुत लेकिन
बिन तीरों के नाकारा कमान सी हैं
इन पर भी कर लेंगे गौर कभी
फिलहाल के लम्हों को क्यों इन पर खोते हैं
चलो अब सोते हैं
जैसा हर बार करते हैं इस बार नहीं क्यों
टालना, बहलाना, गफलतों के चलते उलझना,
मुगालतों का हुनर भी अब आ गया हमको
जो पड गयीं सो पड गयीं
क्यों बनी हुई आदतें ख़राब करते हैं
चलो अब सोते हैं
यूं उठकर भी कब किसने क्या पाया है
आना जाना, खोना पाना
तो यूं भी मोह माया है
फिर दोस्तों की महफ़िल में बैठ फलसफे बयां करेंगे
ऐसे भी ये लम्हे अफ्सुर्दगी में गुज़रते हैं
चलो अब सोते हैं।
Sunday, February 20, 2011
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6 comments:
:) super like!!very thoughtful..
reminded me of some nazms from Raat Pashmine ki..
Thanks Deep, I am glad that you liked it :)
:)
Now thats not what it was meant for, but I guess it fits well, though I am surprised at this interpretation; never thought it that way.
:)
hai sir jee
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