सच बोल सकें हम, इतनी हिम्मत ही कहाँ थी
इसीलिए तो छुपाए फिरते हैं हम शख्सियत अपनी
यूं तो फरेब था नही फितरत में हमारी
वो बात और है, नियत ही कम्बख्त थी अपनी
अब कैसे करें सलाम, लगें बढ़ के गले हम
कुछ बढ़प्पन है आपका, कुछ शरमिंदगी अपनी
तुम तो हो नूर-ऐ-खुदाई, हम स्याह के कायल
हो दिन तुम्हे मुबारक मगर रात है अपनी
हम को था इल्म इस खेल में किसकी होगी जीत
अच्छे तो तुम थे ही फखत किस्मत भी बुरी थी अपनी
तुमने जब माफ़ कर ही दिया खता को हमारी
फ़िर क्यों लें इलज़ाम और कहें की खता थी अपनी
हम तो जाएंगे जहन्नम में ऐ सनम
तुमको हो मुबारक वो जन्नत जो नसीब थी अपनी
बेमुरव्वत है यह ज़िन्दगी की अब भी जिए जा रहे हैं
हाँ इतना जरूर है, है जीना शौक़ और मजबूरी अपनी
ऐसा तो कुछ ख़ास नही है हम में मगर
न जाने क्यों सदा चलती आई है अपनी
मैं नही कहता ये तो फरमाया है 'दाग' ने
सबसे तुम अच्छे हो, तुमसे भी मगर अच्छी है किस्मत अपनी
:)
Sunday, November 29, 2009
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