ये उसके शब्द थे
हवा में ठहरे हुए
होटों से निकल तो गए थे
पर अंजाम तक पहुंचे नही।
एक डोर से बंधे हुए शब्द थे ये
साँसों की डोर से बंधे शब्द,
साँसों के चढ़ते उतरते
ये शब्द अपना मतलब, मकसद, स्वरूप
सब बदलते थे,
पर रहते वहीँ थे
हवा में ठहरे हुए।
अगर कभी वो डोर टूटती
तो छीटक कर गिरते
और तब शायद
उनके गिरकर टूटने की आवाज़
उन कानो से जा टकराती
जो मंजिल थी उन शब्दों की,
पर कौन कह सकता था
क्या मतलब निकाला जाता
इन हवा में ठहरे शब्दों का तब।
आसान तो इस जहाँ में कुछ भी नहीं
न कह पाना ही
न सुन पाना ही
न सुन के समझ पाना ही।
बारिश की बूंदों में
भीग रहे हैं
हवा में ठहरे कुछ शब्द
धीरे - धीरे अपना वजूद खोते
बेनूर, बदरंग, बेरंग,
बेआवाज़, बेमतलब, बेमकसद
बेवजूद।
बारिश अब थम गयी है
हवा अब सधी हुई है;
अब सिर्फ हवा है
हवा में ठहरे शब्द नहीं।
Picture: Wheat Field With Crows (Vincent Van Gogh)
2 comments:
Thanks Deepak :)
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