उन रातों के सिलसिले हुए
बीते जिन्हें एक अरसा हुआ.
खिड़की के कोने सेनिहारता था चाँद,
और सोचता था मैं कशमकश में,
'कल यूं अगर हो जाए तो'.
कितने दिन निकले उस 'यूं' की तलाश में
हुआ पर वह कभी नही,
अनजान सी सडको पर
जाने कितने चक्कर लगाये,
न पता, न जान पहचान
सिर्फ़ एक दर्द की चाहत में,
दर्द जो अब भी कभी
रातों को परेशां करता है तो
खिड़की पर खड़े यही सोचता हूँ,
चाँद को शायद तुम भी निहारती होगी
ऐसी ही दोपहरियों में.
1 comment:
Interesting to know.
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